अश्वगंधा (Ashwagandha) एक बहुत ही महत्वपूर्ण पौधा है इसका सबसे ज़्यादा उपयोग आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली में किया जाता है । सभी ग्रथों में अश्वगंधा की महत्ता के वर्णन को दर्शाया गया है। इसका नाम अश्वगंधा इस पोधे की ताजा पत्तियों तथा इसकी जड़ों में घोड़े के मूत्र की गंध आने के कारण ही पड़ा।विदानिया कुल की विश्व में दस तथा भारत में दो प्रजातियाँ ही पायी जाती हैं। आयुर्वेदिक चिकित्सा प्राणली में अश्वगंधा (Ashwagandha) की माँग इसके बहुत अधिक गुणकारी होने के कारण बढ़ती जा रही है। अश्वगंधा (Ashwagandha) एक कम लागत में ज़्यादा उत्पादन देने वाली औषधीय फसल है। अश्वगंधा की कृषि करके किसान इसकी लागत का लगभग दो से तीन गुना मुनाफ़ा प्राप्त कर सकते हैं।अश्वगंधा की फ़सल पर प्राकृतिक आपदा का ख़तरा अन्य फ़सलो की तुलना में कम ही होता है। इसकी बुआई के लिए जुलाई से सितंबर का समय सही माना जाता है। कृषि वैज्ञानिको का कहना है कि वर्तमान समय में पारंपरिक खेती में फ़सलो को हो रहे नुकसान को ध्यान में रखते हुए अश्वगंधा की खेती किसानों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण साबित हो सकती है।अश्वगंधा एक औषधि है। इसे बलवर्धक, स्फूर्तिदायक, स्मरणशक्ति वर्धक, तनाव रोधी, कैंसररोधी माना जाता है। इसकी जड़, पत्ती, फल और बीज औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है।
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नर्सरी के लिए पांच किलोग्राम/हेक्टेअर तथा छिड़काव के लिए पर हेक्टेअर दस से सत्रह किलो ग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है। जुलाई से सितंबर तक का समय बोआई के लिए उपयुक्त समय माना जाता है।
बलुई, दोमट मिट्टी या हल्की लाल मृदा,जिसमें अच्छी जल निकास हो सके तथा जिसका पीएच मान लगभग 7.5 से 8 हो, उपयुक्त मानी जाती है।
चोपायी के वक़्त इसका आवश्यक रूप से ध्यान रखें कि दो पौधों के बीच लगभग 8 से 10 सेमी की दूरी हो तथा प्रत्येक लाइन के बीच 20 से 25 सेमी की दूरी हो। बीज एक सेमी से ज्यादा गहराई पर न डाले।
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बोआई से लगभग एक महीने पहले पर हेक्टेअर लगभग पांच ट्रॉली गोबर की देशी खाद खेत में डाले। बोआई के वक़्त 15 किग्रा नत्रजन व 15 किग्रा फास्फोरस का छिड़काव अवश्य करें।
डब्लूएसआर,डब्लू.एस-20 (जवाहर), तथा पोषिता अश्वगंधा की सबसे अच्छी प्रजातियां मानी जाती हैं। नियमित रूप से बारिश होने पर सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती। बहुत आवश्यकता पड़ने पर सिंचाई अवश्य करें।
बोई गई फसल को लगभग 25 से 30 दिन बाद छटाई कर देना चाहिए। इससे लगभग 60 पौधे प्रतिवर्ग मीटर यानी लगभग 6 लाख पौधे पर हेक्टेअर अनुरक्षित हो जाते हैं।
अश्वगंधा ऐसी फ़सल है जिस पर रोग व कीटों का कोई विशेष असर नहीं पड़ता। लेकिन कभी-कभी पूर्णझुलसा रोग तथा माहू कीट से फसल प्रभावित होने की सम्भावना रहती है। ऐसी स्थिति में मोनोक्रोटोफास का डाययेन एम- 45, प्रति लीटर तीन ग्राम पानी की दर से घोल बनाकर फ़सल बोने लगभग 30 दिनो के भीतर छिड़काव करें।अगर आवश्यकता पड़े तो 15 दिन के अंदर दोबारा छिड़काव करें।
फसल बोने के लगभग 150 से 175 दिन फ़सल तैयार हो जाती है।इसका पता फ़सल की पत्तियों का सूखने पर चल जाता है। पके हुए पौधे को उखाड़ कर इसकी जड़ों को गुच्छे से दो सेमी ऊपर से काट लें फिर इन्हें अच्छे से सुखाएं। फल को तोड़कर बीज को निकाल लें।
इसकी पत्तियों से पेट के कीड़े मारने तथा गर्म पत्तियों से आँखों के दुखने का इलाज किया जाता है। इसकी हरी पत्तियों का लेप घुटनों की सूजन के इलाज के लिए किया जाता है। अश्वगंधा के प्रयोग से रुके हुए पेशाब के मरीज को आराम मिलता है। इसे भारतीय जिनसेंग की संज्ञा दी गई है जिसका उपयोग शक्तिवर्धक के रूप में किया जा रहा है।
अश्वगंधा का नियमित रूप से सेवन करने से मनुष्य में रोगों से लड़ने की रोग प्रतिरोध क्षमता बढ़ती है। इसकी निरन्तर बढ़ती हुई मांग को देखते हुए इसके उत्पादन की अपार संभावनाएं दिखाई देती हैं।
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